Wednesday 28 March 2012

क्या पता मैं भी खिल उठूँ?

लहरें आयीं और आके चली गयीं,
हाथों में रेत भरी थी, मुठ्ठी बंद की तो वो भी बह गयी.
समय था मेरे पास, सोचा की क्या  करू मै इस समय में,
बस सोचते सोचते  वो समय भी निकल गया.
मौका तो कई बार मिला पर हाथ से वो बभी छूट गया,
आलम अब यह है की ज़िन्दगी चल रही है,
दिशा क्या है, कोई सुध-बुध मुझे है नहीं उसकी .

मोर पंख है हाथ में,
एहसास उसका गुगुदा रहा है.
ख़याल आ रहा है मन में,
की इतनी छोटी सी पंखुड़ी ,
जिसको मेने ज़मीन से उठाया ,
गिरा पड़ा था  रस्ते में.
पर फिर भी उसने अपनी  कोमलता नहीं छोड़ी.
उसका मासूम एहसास अब भी जिंदा है,
जाने कितने पैरों के  नीचे  रौंदा गया होगा,
पर फिर भी जिंदा है.



और मै, ज़िन्दगी की नाव में चल रही हूँ,
कोई तूफ़ान नहीं  है,
कोई भंवर नहीं है,
फिर भी, क्यूँ हु इतनी गुमसुम, इतनी मुरझाई हुई?
बस इसलिए क्यूंकि अतीत का तूफान अभी तक मेरे मन में चल रहा है.

मुझसे बेहतर तो वो मोर पंख है,
जो इतना रौंदे जाने के बाद भी,
 ज़िन्दगी को देख के मुस्कुरा रहा है.
बस फिरा लेती हु उससे,
अपने हर ज़ख़्म पे जो कर्राह रहा है.
क्या पता मैं  भी खिल उठूँ?
क्या पता मैं  भी खिल उठूँ?   

    

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